New Congress President Mallikarjun Kharge :सोनिया गांधी – राहुल गांधी की छत्रछाया से निकलकर भी मल्लिकार्जुन खरगे कांग्रेस को गुजरात और हिमाचल प्रदेश में जीत दिला पाएंगे इस पर संदेह है क्योंकि शशि थरूर या युवा कांग्रेस नेता उनको पसंद नहीं करेंगे

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नई दिल्ली : 24 साल बाद 80 साल के मल्लिकार्जुन खरगे गांधी परिवार के बाहर कांग्रेस के नए अध्यक्ष बने हैं। खरगे आपातकाल में बनाए गए उम्मीदवार थे। असली उम्मीदवार तो अशोक गहलोत थे। लेकिन ये राजनीतिक भूचाल ले आए। गहलोत अपनी शर्तों पर अध्यक्ष बनना चाहते थे। राजस्थान के सीएम बने रहने चाहते थे। मल्लिकार्जुन खरगे मंजे हुए नेता हैं। बीदर और गुलबर्ग में उनकी राजनीतिक पैठ है। 1969 से ही राजनीति में हैं। 1972 में पहली बार विधानसभा पहुंचे। छह बार विधायक रहे। 2014 में गुलबर्ग से सांसद बने लेकिन 2019 में मिली हार के बाद राज्यसभा में हैं। ट्रेड यूनियन और किसान आंदोलन में भी हिस्सा ले चुके हैं। लेकिन कांग्रेस के पुनर्जागरण की दृष्टि से खरगे पार्टी की बीमारी का इलाज नहीं हैं।

खरगे कांग्रेस की जरूरतों में फिट नहीं बैठते तो इसके दो-तीन कारण हैं। कांग्रेस की चुनौती है भारतीय जनता पार्टी। भाजपा के सेकेंड लाइन अप में अमित साह, योगी आदित्यनाथ, शिवराज सिंह चौहान और फिर अनुराग ठाकुर जैसे युवा नेता हैं जो तेजी से उभर रहे हैं। उनकी तुलना में खरगे एक बूढ़ा नौजवान है। इन पर ग्रांड ओल्ड पार्टी को दोबारा खड़ा करने की जिम्मेदारी होगी। दूसरा, ओल्ड गार्ड और यूथ गार्ड के बीच क्या बैलेंस रहेगा? 2019 की शिकस्त के बाद यूथ ब्रिगेड की अगुआई कर रहे राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। इसी के साथ यूथ ब्रिगेड का विघटन भी कांग्रेस में शुरू हो गया। जिसका परिणाम है आज ज्योतिरादित्य सिंधिया केंद्र में और जितिन प्रसाद उत्तर प्रदेश में मंत्री हैं। इसलिए यूथ लीडर्स खरगे को कितना पसंद करेंगे, ये बताना मुश्किल है।

तीसरा, जो नए वोटर्स हैं। जो खुद को किसी राजनीतिक विचारधार से जोड़ना चाहते हैं। वो 52 प्रतिशत आबादी जो 30 साल से कम की है वो किस तरफ देखेंगे। एक 18 साल का नौजवान खरगे को पसंद करेगा या अनुराग ठाकुर, अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया को। ये बड़ा सवाल है। चौथा, कांग्रेस का सूपड़ा उत्तर भारत में साफ हो रहा है। कांग्रेस अभी भी दक्षिण में उतने बुरे हाल में नहीं है जितना उत्तर में। अभी आईएनएस -सी वोटर्स के सर्वे को देखें तो भूपेश बघेल को छोड़ कर राजस्थान में भी हालत खराब है। ऐसी हालत में यूपी-बिहार, एमपी, राजस्थान के बदले दक्षिण से अध्यक्ष चुनना रणनीतिक तौर पर ठीक नहीं है। हां, अगर शशि थरूर जीत गए होते तो उनकी स्वीकार्यता खरगे से बेहतर जरूर है। वो राष्ट्रीय मुद्दों पर देश विदेश में जोरदार तरीके से राष्ट्रहित में अपनी बात रखते हैं। डिप्लोमैट से नेता बने थरूर एक तरह से यूथ आइकॉन हैं।

खरगे की चुनौतियां
अब खरगे की चुनौती उदयपुर घोषणापत्र को लागू करने की है जिस पर वो खुद ही खरा नहीं उतरते। इसमें युवाओं को आगे लगाने का संकल्प लिया गया था। राहुल गांधी उदयपुर के बाद आश्वस्त रहे होंगे कि अक्टूबर में अध्यक्ष कौन होगा क्योंकि चुनाव की प्रक्रिया एक साल से चल रही थी। उदयपुर सम्मेलन के बाद गहलोत की बात साफ थी। पर सचिन पायलट से डरे गहलोत ने 24 घंटे के भीतर हालात बदल दिए।

अब देखना होगा कि शशि थरूर जैसे नेता किस तरह का रुख अपनाते हैं। थरूर खुद बता चुके हैं कि वो जीते तो पार्टी बदलेगी, नहीं तो पुराने ढर्रे पर चलेगी। तो ये तय है कि पार्टी पुराने ढर्रे पर चलेगी। अब खरगे की पहली प्राथमिकता होगी पार्टी में पहले से बने युवा नेताओं को टूटने से रोकें। उसके बाद ही खरगे नए युवाओं को पार्टी से जोड़ने की सोच सकते हैं।

जो नए वोटर्स हैं। जो खुद को किसी राजनीतिक विचारधार से जोड़ना चाहते हैं। वो 52 प्रतिशत आबादी जो 30 साल से कम की है वो किस तरफ देखेंगे। एक 18 साल का नौजवान खरगे को पसंद करेगा या अनुराग ठाकुर, अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया को। ये बड़ा सवाल है।

आलोक कुमार

ये भी देखना दिलचस्प होगा कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी क्या खुद को मार्गदर्शक मंडल में सीमित रखेंगे। क्या एक कमेटी बनेगी जो बड़े फैसले लेगी और क्या इसमें गांधी परिवार का सदस्य शामिल होगा? अगर हम नब्बे के दशक को देखें जिसमें पीवी नरसिंहराव पीएम थे और सीताराम केसरी कांग्रेस अध्यक्ष तो क्या गांधी परिवार का दखल नहीं था? जवाब है, हां पूरा था। इसलिए अभी ये कहना जल्दबाजी होगा कि खरगे पर गांधी परिवार का कोई असर नहीं होगा।

राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा से ये संदेश तो जरूर दिया कि वो जमीन पर उतरने से नहीं हिचकेंगे तो मेरा सवाल उनके रणनीतिकारों से हैं। जब सवाल हिमाचल और गुजरात में वापसी का है तब किस तरह की जमीन का चयन किया है। कन्याकुमारी से चलते हुए जो रूट तय किया है उसे समझना मुश्किल है। अभी तो उनको हिमाचल -गुजरात में घुसकर चैलेंज करना चाहिए था। लेकिन भाजपा को कोई चैलेंज करता हुआ दिखाई दे रहा है तो वो हैं अरविंद केजरीवाल या मनीष सोसोदिया। मैं तो दाद दूंगा सिसोदिया की जो सीबीआई के सामने आठ घंटे की पूछताछ के बाद गुजरात प्रचार के लिए निकलते हैं। तो वो लड़ने का माइंडसेट है वो राहुल में मिसिंग है। राहुल गांधी जिस तरह विनोबा भावे जैसी बातें कर रहे हैं उससे चुनावी राजनीति में जीत हासिल नहीं होती। वैचारिक स्तर पर भी राहुल पर आरोप लग रहा है कि वो भारत की एकता को डिसक्रेडिट कर रहे हैं। अगर राहुल को लगता है कि भाजपा सांप्रदायिक आधार पर देश तोड़ रही है तो उन्हें आज जिग्नेश मेवाणी के साथ गुजरात में ललकारते हुए दिखना चाहिए था। अगर यहां जीत हासिल हो तो उसका संदेश वहां भी जाता जहां आज वो हैं।

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