mallikarjun kharge congress presidency means much needed internal reforms postponed till 2024 elections

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आसिम अली
अगर शशि थरूर पश्चिम के किसी देश में पार्टी नेतृत्व के लिए चुनाव लड़ते तो शायद वह बेहतर प्रदर्शन किए होते। उनके लिए समस्या यह थी कि कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव अमेरिका में डेमोक्रैटिक पार्टी के प्राइमरी इलेक्शन से बहुत अलग है क्योंकि असल में इसमें पार्टी के सभी सदस्य फैसला नहीं करते। यह किसी बड़ी खाप पंचायत के अगुवा को चुनने की तरह है। इसलिए चुनाव नतीजे नामांकन वाले दिन से ही साफ थे जब कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गज नेता शशि थरूर के प्रतिद्वंद्वी मल्लिकार्जुन खरगे के साथ सार्वजनिक तौर पर फोटो खिंचवाने की होड़ में थे।

स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की तो बात ही बेमानी है क्योंकि नेतृत्व की पसंद के खिलाफ वोट करना डेलिगेट्स के लिए कतई आसान नहीं है। नेतृत्व जिसके पीछे खड़ा दिख रहा हो उसके विरोध में चाहकर भी कई डेलिगेट वोट डालने की हिम्मत नहीं कर सकते। कांग्रेस की सस्याओं की मूल जड़ पार्टी की नौकरशाही वाली शिथिल व्यवस्था है।

  • -इन्हीं बुजुर्ग नेताओं में से कई सोनिया गांधी के कार्यकाल में कई वर्षों तक केंद्रीय और राज्य संगठनों में प्रभावशाली पदों पर रहे। कुर्सी दौड़ के खेल की तरह। एक कुर्सी गई तो दूसरी कुर्सी मिल गई। जैसे कोई म्यूजिकल चेयर गेम खेला जा रहा हो। जैसे ही म्यूजिक बंद, नई कुर्सी हाजिर है।
  • -इसके उलट बीजेपी में कुछ नेता ही लंबे समय तक संगठन में प्रभावशाली पदों पर रह पाए।
  • -कांग्रेस वर्किंग कमिटी में शामिल नेताओं की औसत उम्र 68 वर्ष है, इसमें किसी भी नेता की उम्र 50 साल से कम नहीं है।

शशि थरूर ने जो सबसे प्रमुख वादा किया था वह यह था कि संगठन में हर स्तर पर चुनाव कराए जाएंगे। फैसलों में लोकल यूनिट्स से लेकर स्टेट यूनिट तक की हिस्सेदारी हो। इससे जमीन से कटे और बूढ़े हो चुके हर नेता के काम खड़े हो गए। चाहे वे अंबिका सोनी जैसे गांधी परिवार के वफादार हों या फिर आनंद शर्मा जैसे असंतुष्ट समूह G-23 के नेता। उन्होंने तुरंत जान लिया कि शशि थरूर की उम्मीदवारी तो कुछ और ही है। यह तो पार्टी की ब्यूरोक्रेसी के खिलाफ ही एक तरह का अविश्वास प्रस्ताव है।

इसके बाद तो उन्होंने जो किया उसके लिए पलक झपकने तक की देरी नहीं की और न ही गांधी परिवार से मंजूरी का इंतजार किया। यह था थरूर को अलग-थलग करना और अपनों में से किसी एक को चुनना।

वैसे अतीत में ऐसे कई उदाहरण हैं जब कमजोर समझे जाने वाले नेता को सिर्फ इसलिए पार्टी की कमान मिली कि वह कमजोर है। लेकिन उसने गांधी परिवार के दखल के बिना स्वतंत्र रूप से काम करने की कोशिश की। 1996 में 76 साल के सीताराम केसरी को कांग्रेस की कमान मिली। एक ऐसे नेता को जिसका अपना कोई राजनीतिक आधार नहीं था। यहां तक कि अपने गृहराज्य बिहार में ही उनकी कोई सियासी जमीन नहीं थी। लेकिन केसरी ने चुनाव में शरद पवार और राजेश पायलट जैसे दिग्गजों को बहुत ही आसानी से धूल चटा दी।

राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस पर निश्चित तौर पर गांधी परिवार का नियंत्रण नहीं था। सोनिया गांधी राजनीति में आना नहीं चाहती थीं। लेकिन तब भी वह उस वक्त एक पावर सेंटर थीं। उनकी ताकत पार्टी नेताओं की गुटबाजी और कलह की वजह से थी।

  • -वैसे खरगे की बात करें तो उनका सियासी करियर शानदार हैं। वह 12 चुनाव जीत चुके हैं। सिर्फ 2019 में एक बार हारे थे। उनका अपने गृहराज्य कर्नाटक में अपना बड़ा सोशल बेस है। दूसरी तरफ, केसरी राज्यसभा रूट वाले नेता रहे।
  • -लेकिन इसमें शायद ही शक की गुंजाइश बचे की 80 साल के खड़गे की भूमिका एक दंतहीन प्रधान की ही होगी। दूसरी तरफ बड़े-बड़े नेता एक-दूसरे की टांग खींचने में मशगूल रहेंगे।
  • -यह प्रवृत्ति न सिर्फ कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को परेशान करती है बल्कि संगठन के हर स्तर पर इसका दुष्प्रभाव दिखता है।
  • -यह निश्चित तौर पर पार्टी कल्चर का संकट है। इमर्जेंसी के बाद के करीब 50 वर्षों बाद भी नेतृत्व ऐसा कल्चर विकसित नहीं कर पाया, कोई वैचारिक फ्रेमवर्क नहीं तैयार कर पाया जो पार्टी के भीतर प्रतिस्पर्धा को पुष्पित-पल्लवित कर सके।
  • -वैचारिक तौर पर पार्टी जबतक मथी नहीं जाएगी तबतक सत्ता संघर्ष को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। बिना वैचारिक मंथन के सत्ता संघर्ष को नियंत्रित करने का सिर्फ दो ही विकल्प होगा और दोनों ही खराब। एक तो ये कि अनवरत संघर्ष चलता रहे (राजस्थान में पायलट-गहलोत के बीच अंतहीन सत्तासंघर्ष) या फिर समझौतावादी दृष्टिकोण (जैसे खरगे को अध्यक्ष बनाया गया)।

पार्टी ने एक ऐसे कल्चर को जन्म दिया है जिसमें कुछ बुजुर्ग नेता खुद को पार्टी की नौकरशाही में हमेशा ऊपरवाला मानते हैं। ओल्ड गार्ड की एक ऐसी जमात जो इंदिरा और राजीव युग में कांग्रेस में आए थे। वे शीर्ष नेतृत्व की संरक्षणवादी नीति में रच-बस गए। उन्होंने कभी प्रतिस्पर्धा की राजनीति को बढ़ावा नहीं दिया जिसमें संगठन के भीतर वे लोग आगे बढ़ें जिनमें योग्यता हो, जो बेहतरी की होड़ में शामिल हों।

थरूर का समर्थन सिर्फ मिडल-क्लास तक सीमित रहने की बात कहकर उन्हें खारिज करना आसान है लेकिन कांग्रेस जबतक इसी मिडल-क्लास के मोहभंग को दूसर नहीं करती तबतक वह अपना पुराना गौरव हासिल नहीं कर सकती। मिडल-क्लास ही धारणा बनाता-बिगाड़ता है।

थरूर ने तीन तरह से खुद को मिडल-क्लास की आकांक्षाओं से जोड़ा है- उनके साथ भावनात्मक जुड़ाव, हिंदुत्व और राष्ट्रवाद पर मिडल-क्लास की चिंताओं को बिना लागलपेट कहना और मिडल-क्लास को सियासी रणभूमि के केंद्र में स्थापित करने की कोशिश।

कांग्रेस के परंपरागत नेता शायद खुद को इस उम्मीद के हवाले छोड़ दिए हैं कि जब अर्थव्यवस्था चौपट हो जाएगी तो जनता को फिर कांग्रेस और मनमोहन सिंह के नेतृत्व की याद आएगी।

असल में खरगे को लीडरशीप रोल में सिलेक्ट किया गया है। वह फैसलों के लिए गांधी परिवार पर निर्भर रहेंगे। इसकी गुंजाइश कम ही है कि वह पार्टी में नई जान फूंकने के लिए जरूरी सुधारों की दिशा में बढ़ेगे। राहुल गांधी जनता को जोड़ने की मुहिम भारत जोड़ो यात्रा पर निकले हुए हैं। उदयपुर रिजोलूशन में जिस सुधार का खाका खींचा गया वह अब मुरझाता हुआ दिख रहा है।

कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव को लेकर जितना शोरगुल रहा उसको शायद इन दो बिंदुओं में समेटा जा सकता है।

  • -कांग्रेस ने पार्टी में एकता बनाए रखने के लिए शॉर्टकट अपनाया। एक ऐसा रास्ता अपनाया जिसका फोकस यथास्थिति को बनाए रखने पर है। अगले लोकसभा चुनाव पर शायद ही कुछ फोकस है।
  • -सुस्त पड़ी बेजान पार्टी ब्यूरोक्रेसी को पुनर्गठित करने का काम अब शायद 2024 चुनाव के बाद ही शुरू हो।

(लेखक पोलिटिकल रिसर्चर हैं)

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