*दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठीय जनजातीय गौरव पर हुई संपन्न*
*भारत के स्वाधीनाता संग्राम में मध्य भारत के जनजातीय समाज का रहा महत्वपूर्ण योगदान: डॉ संतोष कुमार सोनकर*
जनजातीय समुदायों के इतिहास, संस्कृति और उनके योगदान से परिचित करवाने के लिए दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वाविद्यालय गया जी में “प्रतिरोध और संकल्प के प्रतीक भगवान बिरसा मुंडा का स्मरण: भारत में आदिवासी संस्कृतियों का पुनर्जीवन और पहचान” विषय पर दो दिवसीय जनजातीय गौरव राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन अंग्रेजी और विदेशी भाषा विभाग एवं आईसीएसएसआर के संयुक्त तत्वाधान में 07 और 08 अगस्त को हुआ।
आयोजित उक्त संगोष्ठी कार्यक्रम में दिल्ली, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, झारखंड, नागालैंड छत्तीसगढ़ एवं पश्चिम बंगाल सहित अन्य राज्यों से राष्ट्रीय स्तर के वक्तागण शामिल हुए जिन्होंने विभिन्न विषयों पर अपनी बातें रखी।
इस संगोष्ठी का शुभारम्भ राष्ट्रीय जनजातीय आयोग की माननीय सदस्य डॉ आशा लकड़ा जी के उद्बोधन के साथ हुआ। साथ में विश्वाविद्यालय के कुलपति प्रोफ के. एन. सिंह बतौर अध्यक्ष मंचासीन रहे।
इस संगोष्ठी में इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वाविद्यालय अमरकंटक, मध्य प्रदेश के अंग्रेजी और विदेशी भाषा विभाग के विभागध्यक्ष डॉ संतोष कुमार सोनकर विशेष वक्ता के रूप में आमंत्रित रहे। संगोष्ठी के संयोजक डॉ अभय लियोनार्ड एक्का ने स्मृति चिन्ह, अंगवस्त्र और संगोष्ठी की किट देकर उनका स्वागत किया। डॉ संतोष कुमार सोनकर ने “स्वाधीनता संग्राम में मध्य भारत के जनजातियों का योगदान” नामक विषय पर अपनी बात रखा। उन्होंने अपने उद्बोधन में कहा कि स्वतंत्रता संग्राम में जनजातीय समुदाय की भूमिका जानने के लिए इस समुदाय की मौखिक परंपराओं को समझना जरूरी है क्योंकि मौखिक परंपराओ के रूप में मौजूद गीत और कहानियाँ जनजातीय समुदाय के मूल इतिहास के स्रोत हैं। इतिहासकारों और अंग्रेजी विद्वानों ने जनजातीय समुदाय के गौरवशाली इतिहास को सही तरीके से प्रस्तुत नहीं किया है। स्वतंत्रता संग्राम में मध्य भारत की भूमिका को चिन्हित करने के लिए छत्तीसगढ़ के हल्बा आंदोलन, भूमकाल आंदोलन और मध्य प्रदेश के भील आंदोलन, गोंड आंदोलन एवं जंगल सत्याग्रह पर बात रखते हुए शहीद गुंडाधुर, राजा शंकर शाह, कुंवर रघुनाथ शाह, भीमा नायक, ख़्वाजा नायक, टंट्या भील, जनजातीय जैसे अमर शहीदों के बारे विस्तृत रूप से बताया। डॉ सोनकर ने हरि राम मीणा की पुस्तक “धूणी तपे तीर” का जिक्र करते हुए मानगढ़ शहादत और गोविन्द गुरु के आंदोलन पर भी प्रकाश डाला। झारखण्ड के जनजातीय कवियों की रचनाओं आदिवासी नायकों के सन्दर्भ को बताया।
भारत सरकार द्वारा अनाम आदिवासी योद्धाओं के ऊपर संगोष्ठीयों के आयोजन हेतु धन्यवाद ज्ञापति किया और कहा कि माननीय प्रधानमंत्री जी का यह प्रयास तब और सफलता होगा जब आदिवासी साहित्य, संस्कृति और इतिहास को विश्वाविद्यालयों के पाठ्यक्रम में रखकर बच्चों को इसके बारे में शिक्षा दिया जाय। इसी सत्र में जनजातीय विश्वाविद्यालय के ही प्रोफेसर नरसिंह, संग्रहालय विज्ञान विभाग के अध्यक्ष ने भी अपनी बात आदिवासी महानायकों पर आधारित संग्रहालयों पर अपनी बात रखा।
डॉ.सोनकर ने “कवि वार्ता” नामक सत्र की अध्यक्षता भी किया जिसमे साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा युवा पुरस्कार से सम्मानित कवि डॉ अनुज लुगुन ने आदिवासी साहित्य की वैचारिकी पर अपनी बात रखा।
दो दिवसीय जनजातीय गौरव राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन के अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में झारखण्ड के प्रसिद्ध कवि महादेव टोप्पो जी उपस्थित रहे। समापन सत्र की अध्यक्षता प्रोफेसर आर के सिंह ने की।
दो दिवसीय संगोष्ठी का लाभ उठाने विश्वविद्यालय के अधिष्ठातागण, विभाग अध्यक्षगण, विभाग प्रमुखगण, प्राध्यापकगण, अतिथि व्याख्यातागण, संगीतकारगण सहित विद्यार्थी एवं शोधार्थीगण उपस्थित रहे। संगोष्ठी का समापन संयोजक डॉ अभय लियोनार्ड एक्का, सहायक प्राध्यापक के द्वारा धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ।